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विदेशी विद्वान्

जाने लगा। इस पुस्तक ने तत्त्वज्ञान के प्रवाह को एक बिल- कुल ही नये रास्ते में ले जाकर डाल दिया।

किसी नये लेखक या नये विद्वान् के गुणों की क़दर होने में बहुधा बहुत दिन लगते हैं। हर्बर्ट स्पेन्सर ने यद्यपि ऐसी अच्छी- अच्छी किताबें लिखी; परन्तु उनकी बहुत ही कम क़दर हुई। स्पेन्सर की पहली किताब “सोशल स्टैटिक्स” को किसी प्रकाशक या पुस्तक-विक्रेता ने लेना और छपाकर प्रकाशित करना मँज़ूर न किया। तब स्पेन्सर ने उसकी ७५० कापियाँ ख़ूद ही छपवाई। उनमें से कुछ तो उसने मुफ़्त बाँट दी और बाक़ी किताबों के बिकने में कोई चौदह-पन्द्रह वर्ष लगे! यही दशा “मानसशास्त्र के मूलतत्त्व” की हुई। उसे भी छपाना किसी ने स्वीकार न किया। अन्त मे स्पेन्सर ही ने उसे भी प्रकाशित किया। उसे भी विकने में दस-बारह वर्ष लगे। इन किताबों को उसने किताब बेचनेवालों को कमीशन पर बेचने के लिए दे दिया था। स्पेन्सर को ये किताबें लिखने से धन-सम्बन्धी लाभ तो कुछ हुआ नहीं, हानि ख़ूब हुई। उसने जान लिया कि इस तरह की किताबो की क़दर नहीं है। हाँ, यदि वह उपन्यास लिखता तो उसे ख़ातिरख़्वाह आमदनी होती। जब इँगलेड में इस तरह की किताबों का इतना अनादर हुआ तब यदि हिन्दुस्तान में इनके कोई न पूछे तो आश्चर्य ही क्या है?

यद्यपि स्पेन्सर की आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं रही तथापि वद्य अपनी निर्धनता के कारण विचलित नहीं हुआ।