पृष्ठ:विदेशी विद्वान.djvu/५१

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मुग्धानलाचार्य्य

चली जाय और भारत की प्रजा की सुख-समृद्धि भी बहुत बढ़ जाय। भारतवर्ष के नालायक़ पण्डितों से संस्कृत पढ़ने से विशेष लाभ की सम्भावना नहीं। क्योकि ये लोग गुण- दोष-परीक्षापूर्वक सस्कृत पढ़ाना नहीं जानते। ये लोग सूक्ष्म- दर्शी नहीं। इससे “सिविल सर्विम” वालों को आचार्य महोदय ही से संस्कृत पढ़कर यहाँ आना चाहिए। यह सूचना आपने अपने छात्रों की संख्या बढ़ाने के लिए नहीं, किन्तु भारतवर्ष और इँगलेड दोनो के लाभ के लिए दी है। डाक्टर मेकडॉनल ने ऐसो हो अनेक निरर्गल बातों से भरा हुआ एक लम्बा लेख लन्दन की रायल एशियाटिक सोसायटी के जुलाई १९०६ ईसवी के जर्नल मे प्रकाशित कराया है। आपकी ये सब मधुर, मनोहर बातें यहाँ के कुछ लोगों को मीठी नहीं लगी। बम्बई के एल्फिन्स्टन कालेज में पण्डित श्रीधर राम- कृष्ण भाण्डारकर, एम॰ ए॰, संस्कृताध्यापक हैं। उन्होंने आचार्य्य महोदय के लेख का खण्डन लिखा। आपके प्रायः प्रत्येक आक्षेप की असारता उन्होंने दिखलाई। जवाब बहुत ही माक़ूल हुआ। उसे उन्होने बम्बई की एशियाटिक सोसा- यटी के जर्नल में छपने के लिए भेजा। परन्तु सोसायटी के मन्त्री महाशय ने उसे प्रकाशित करने से इनकार किया। आपकी राय हुई कि इस उत्तर में विवादाश अधिक है; इससे सोसायटी के जर्नल में नहीं छप सकता। अच्छा फ़ैसिला हुआ। आचार्य्य जो कुछ कहे कह सकते हैं; जो कुछ छपावें