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विदेशी विद्वान्


छपा सकते हैं। और लोग उनकी बराबरी किस क़ानून की रू से करने का हक़ रखते हैं? खै़र, लाचार होकर, श्रीधरजी ने अपना उत्तर पुस्तकाकार छपाया और उसका विपुल वितरण किया।

आचार्य की आज्ञा है कि जो लोग विलायत से संस्कृत पढ़कर आवेगे वे हमारे धर्मशास्त्र की पुस्तकें ख़ुद ही पढ़कर न्याय ख़ूब कर सकेंगे। गुण-दोष-विवेचना-शक्ति-हीन पुराने ढर्रे के पण्डितों से पढ़ने से जो बातें उन्हे न सूझेंगी वे विलायत से पढ़कर आने पर आप ही आप सूझ जायँगी। हम कहते हैं कि जो विद्वान् एक सतर तक सही संस्कृत नहीं लिख सकते और जो इस देश में क़दम रखते हो संस्कृत बोलना भूल जात हैं उनके छात्र मनु और याज्ञवल्क्य की स्मृतियाँ क्या समझेगे ख़ाक! पहले उनके गुरु तो अच्छी तरह समझ ले। ये योरप के संस्कृत-विद्वान् वैदिक साहित्य मे चाहे भले ही भारतवासियों से बढ़ जायँ, क्योंकि वेदाध्ययन के लिए वहाँ विशेष सुभीता है, परन्तु और बातों में यहाँ वालो से अधिक विज्ञता प्राप्त करने की आशा रखना व्यर्थ है। यहा किसी कालेज के अँगरेज़ो भाषा के प्रोफेसर को यदि एक लाइन भी अँगरेज़ी लिखना न आवे, या वह अपने मन का भाव अपने अँगरेज़-अफसर के सामने अँगरेज़ी में न प्रकट कर सके, तो वह उसी दिन निकाला जाय। पर गाटिजन और ट्याक्सफ़र्ड के संस्कृताचार्य यदि एक वाक्य भी संस्कृत में शुद्ध न लिख सकें तो भी कुछ हानि नहीं; तो भो वे