आचार्य सुग्धानल भारतवर्ष के मामूली पण्डितों ही को नालायक़ नहीं ठहराते। आपकी राय है कि यहाँ के स्कूलों और कालेजो के संस्कृतज्ञ अध्यापक भी योग्यता से ख़ाली हैं। न उन्हे परीक्षा-पत्र अच्छे बनाने आते हैं और न उन्हे पाठ्य- पुस्तकें ही चुनने का शऊर है। आपका ख़याल है कि यहाँ के शिक्षा-विभाग के डाइरेक्टर संस्कृत नहीं जानते। इसी से अच्छी पुस्तकें नहीं चुनी जाती। आचार्य समझते हैं कि यदि डाइरेक्टर साहब संस्कृत जानते तो अच्छी पुस्तकें चुन देते। आपको यह ख़बर नहीं कि पाठ्यपुस्तकें चुनने का काम या तो “सीनेट” के प्रबन्ध से होता है, या विश्वविद्यालय के नियत किये हुए “वोर्डस् आव् स्टडीज़” के प्रबन्ध से या ख़ास कमेटियों की सिफ़ारिश से। इनमे संस्कृत के बड़े-बड़े विद्वान् रहते हैं। बेचारे “नेटिव” अध्यापकों पर हो इसका भार नहीं रहता। किन्तु आचार्य के समकक्ष गौराङ्ग-गुरु टीबो, वीनिस. इविड्, ऊलनर और फ़िलिप्स आदि भी रहते हैं। और जब बुलर, फूरर, कीलहान और पीटर्सन थे तब वे भी पाठ्य-पुस्तक-निर्वाचन करने की कृपा किया करते थे। यही नहीं, किन्तु कितने ही गौराङ्ग विद्वान् परीक्षक भी नियत होते हैं। अतएव पाठ्यपुस्तकों और संस्कृत के परचों से यदि भारतवासी अध्यापकों की अयोग्यता झलकती है तो विलायत- वासियों को क्यों नहीं? इसलिए नहीं, क्योंकि वे आचार्य के देश, द्वीप या भूमिखण्ड के वासी हैं।
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