पृष्ठ:विदेशी विद्वान.djvu/६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५९
मुग्धानलाचार्य्य

How keen must be the pang a father feels When freshly parted from a cherished child.

यहाँ पर “फ़ादर” (पिता) से कभी वह अर्थ नहीं निकल सकता जो गेही या गृहस्थ से निकलता है। श्लोक मे वनवासी और गृहस्थ का मुक़ाबला है। कण्व न तो शकु- न्तला के पिता थे; न गृहस्थ। तिस पर भी शकुन्तला से बिदा होते समय वे विह्वल हो उठे। अब यदि वे उसके पिता होते और वन में भी रहते होते तो उनकी विकलता और भी बढ़ती। और यदि कहीं पिता होकर वे गृहस्थ भी होते तो उनकी विक- लता का कहीं ठिकाना न रहता। यदि किसी कन्या का पिता वन मे तपस्वी हो तो उसे अपनी कन्या से बिदा होते समय जितना दुःख होगा उससे कई गुना अधिक उस कन्या के पिता को होगा जो घर मे रहता होगा―जो गृहस्थ होगा। कारण यह है कि अरण्यवासी तपस्वी त्यागी होते हैं, मनो- विकारो के वे कम वश मे होते हैं; पर गृहस्थ आदमियों को माया-मोह वेतरह सताता है। इसी से उन्हे कन्या से हमेशा के लिए बिदा होते समय अत्यधिक दुःख और कातर्य्य होता है। पर यह इतनी मोटी बात सूक्ष्मदर्शी मुग्धानलाचार्य्य महो- दय के ध्यान में नहीं आई जान पड़ती।

दुष्यन्त अपने पुत्र को देखकर मन ही मन कहता है―


अनेन कस्यापि कुलांकुरेण स्पृष्टस्य गात्रेषु सुखं ममैवम्।
कां निवृतिं चेतसि तस्य कुर्य्याद्यस्यायमङ्कात् कृतिनः प्ररूढः॥