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विदेशी विद्वान्


को है पसन्द। इसी से वे स्त्रियों के वर्ण की उपमा चम्पक, चामीकर और आपक्वशालि से देते हैं। वही बात यहाँ भी है। शरन्नववधू की पतली देह के रङ्ग की रुचिरता बतलाने के लिए कालिदास ने पके हुए ध़ान के खेतों का स्मरण किया है। सो उसका अर्थ मुग्धानल साहब ने कुछ का कुछ करके नवोढ़ा शरद् को धान के पयाल की पोशाक पहना दो! यह भी शायद आपकी पुस्तक मे पाठान्तर होने का फल हो। पर जब तक यह न मालूम हो कि आपकी पुस्तक में क्या लिखा है तब तक आप हमे इस आलोचना के लिए क्षमा करें।

आपकी पुस्तक मे इस तरह की तो अनेक भूले हैं ही। पर और तरह की भी बहुत हैं। उनका फिर कभी विचार करेगे। इस बार इतना ही सही।

सुनते हैं मुग्धानलाचार्य्य महाशय छोटे मोटे आदमियों से पत्र-व्यवहार करना नहीं पसन्द करते। यदि कोई वैसा आदमी आपको पत्र भेजे या आपसे कुछ पूँछे तो आप उसका उत्तर ही नहीं देते। और, अपना फ़ोटो तो कभी किसी ऐसे-वैसे को देते ही नहीं। शायद यही कारण है जो आज तक आपका चित्र अच्छे से अच्छे भारतवर्षीय सामयिक पत्रों में छपा हुआ नहीं देखने में आया। ऐसी बातें या तो गर्व से हो सकती हैं या शालीनता अथवा सङ्कोच से। आपके वेद-विद्या-गुरु भट्ट मोक्षमूलर में ये बातें न थी। वे हमारे सदृश छोटे आदमियों से भी पत्र-व्यवहार करते थे। उन्हें यदि