पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१०१

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विद्यापति । ६५ सखी । १८५ कुच कोरी फल नख खत रेह । नवससिछन्दे अङ्करल नव नेह ॥२॥ जिव जन जनि निरधने निधि पाए । खने हेरए खने राख झपाए ॥४॥ | नवि अभिसारिन प्रथमक सङ्ग । पुलकित होए सुमरि रतिरङ्ग ॥६॥ गुरुजन परिजन नयन निवारि । हाथ रतन धरि वदन निहारि ॥८॥ । अवनत मुख कर परजन देखि । अधर दसन खत निरवि निरोख ॥१०॥ ------ सखी । आज देखलिसि कालि देखलिसि आज कालि कत भेद ॥ सैसवे बापुडे सीमा छाडल जउवने बॉधल फेद ॥२॥ सुन्दरि कनककैया मुति गोरी ॥ दिने दिने चान्दकलासबाढलि जउवन सोभा तोरी ॥४॥ बाल पयोधर बदन सहोदर अनुमापिय अनुरागे ॥ कने पुरुष करें परसए पायोल जे तनु जिनल परागे ॥६॥ मन्द हासे वङ्किम कए दूरसए चङ्गिम भेउह विभङ्गे ॥ लाजे वैकुलि सामु न हेरए याउल नयन तरङ्गे ॥८॥ विद्यापति कविवर एहु गावए नव जउवन नव वन्ता । सिवसिंह राजा एहोरस जानए मधुमति देवि सुकन्ता ॥१०॥