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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१०२

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विद्यापति । ६.६ सखी । १८७ आजु विपरीत धनि देखिय तोय । बुझइ न पारिय संशय मोय ॥ २॥ तुय मुखमण्डल पनिमक चॉद । को लागि भेल ऐसन छाँद ॥ ४ ॥ नयन युगले भेल कजर बियार । अधर निरस करु कोन गमार ॥ ६ ॥ पीन पयोधर नख रेख देल । कनक कुम्भ जनि भगनहु भेल ॥६॥ अङ्ग विलेपन कुङ्कम भार । पीताम्बर धरु इथे कि विचार ॥ सुजन रमनि तुहु कुलवति बाद । का सजे भुञ्जलि मरमक साद ॥" कामिनि काहनी कह संवाद । कह कविशेखर नह परमदि । सखी । १८८ कह कथि सामरि झामर देहा। कोन पुरुष सजे लयलि नेहा ॥ २ ॥ अधर सुरङ्ग जनि निरस पवार । कोन लुटलतुय अमिय भण्डार । ° रङ्ग पयोधर अति भेल गोर । माजि धयल जनि कनय कटार " न जाइह से पिया तन्हि एक गुने । फिरि आल तुङ्गे पुरुबक पून विद्यापति कवि इह रस भाने । राजा शिवः ।