पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्यापति । राधा । १६७ कि कहब हे सखि कहइते लाज । जेहो करल सोइ नागरराज ॥ २ ॥ पहिल वयस मझु नहि रति रङ्ग । दूति मिलायल कानुक सङ्ग ॥ ४ ॥ हेरइते देह मझु थर थर कॉप । सोइ लुबुध मति ताहे करु झॉप ।। ६ ।। | चेतन हरल आलिङ्गन चेलि । कि कहब किये करल रस केलि ॥ ८ ॥ | हट कर नाह कयल कत काज । सेकि कहब इह सखिनि समाज ॥१०॥ | जानसि तव काहे करसि पुछारि । से धनि जे थिर ताहि निहारि ॥१२॥ विद्यापति कह न कर तरास । ऐसन होयल पहिल विलास ॥१४॥ राधा । १९८६ कि कब हे सखि आजुक वात । मानिक पड़ल कुवनिक हात ॥२॥ काच काञ्चन न जानय मूल । गुञ्जा रतन करय समतूल ॥४॥ जे कि कभु नहि क्ला रस जान । नीर खीर दुहे करय समान ॥६।। तन्हि सौ कॅहा पिरित रसाल । वानर कण्ठे कि मोतिम माल ॥८॥ भनइ विद्यापति इह रस जान । बानर मुह की शोभय पान ||१०।।