पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/११६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

११० विद्यापति । कौतुक । राधा ।। पिय परदेस आस तुअ पासहि ते बोलह सखि आन । जे पतिपालक से भेल पावक इथी कि वोलत अनि ॥ ३ ॥ साजन अघटन घटावह मोहि ।। पहिलहिं आनि पानि पियतमै गहि करे धरि सोपलिहु तोहि ॥ ४ ॥ कुलटा भए यदि पेम वढाविअ ते जीवने की काज । तिला एक रङ्ग रभस सुख पाओच रत जनम भरि लाज ॥ ६ ॥ - कुलकामिनि भए निग्र पिय विलसे अपये कतहु नहि जाइ । की मालती मधुकर उपभोगय किंवा लताहि सुखाइ ॥ ८ ॥ विद्यापति कह कूल रखले रह टूति बचने नहि काज । राजा शिवसिंह रूप नरायन लखिमा देइ समाज ॥ १० ॥ राधा । २१६ निधन का जो धन किछ हो करए चाह उछाह ।। सिआर की जनों सींग जनमए गिरि उपाए चाह ॥ २ ॥ टूती बुझलि तोहरि मती । छाड़रे चन्दा भरइते चुलह कि हरह ताहे विपती ॥ ४ ॥ पिपड़ी की जो पॉखि जनमए अनल करए झपान । छोटा पानी चह चह कर पोठी के नहिं जान । जइ जकर मूई पेच सन टूमए चाहए न । हम तह के विपद् आगर ढोंढहु का थिक भान ॥ ८ ॥ झरक पानी डोभक कई गरच उपजू जाहि । भने विद्यापति दक कमल दृस्य चाहए ताहि ॥१०॥