सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/११७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्यापति । राधा । २२१ पहिल पसार संसार सार रस परहक पहिल तोहार है । हठे ऑवर मोर फेरि न हलवे रवें रस भए जाएत उघार हे ॥२॥ ए हरि ए हरि आरति परिहरि हठ न करिअ पहु चाट हे । जेहे बेसाल से कि वैसाहब उचित मनोभव हाट हे ॥४॥ कञ्चने गढ़ल पयोधर सुन्दर नागर जीवन अधार हो । छुअइते रतन तुल न रह अधिक मुल किनहि न पार गमार हे ॥६॥ भनइ विद्यापति सुन हे सुचेतनि हरि सञो कइसन समान हे ।। कपट तेजिक भजह जे हरि सञो अन्त काल होअ ठाम है ॥८॥ राधा । २२२ सगर संसारक सारे । अछए सुरत रस हमर पसारे ॥२॥ छुई जनु हलह कन्हाइ । आरति मान न हलिय नडाइ ॥४॥ दुहि रहओ मोरि सेवा । पहिल पढ्ञोक उधार न देवा ॥६॥ हृदय हार मोर देखी । लोभे निकट नहि होएव विसेखी ॥६॥ मिलते उचित परिपाटी । मधय मनोज घरहि घर साटी ॥१०॥ विद्यापति कह '. " ।। ५ सञो कैसन रौक उधारी ॥१२॥