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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/११८

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१ १२ विद्यापति । བའབ་འགའ་་ག་འགའ་ལ་གག་ག་ག་ राधा । ३१६ राहु तरासे चॉद हम मानि । अधर सुधा मनमथे धर आनि ॥ ३॥ जिच जना जोगाएव धरव अगरि । पिवि जनु हलह लगति हम चार ।। सहजहि कामिनि कुटिल सिनेह । श्रास पसाह वॉक ससि रेह ॥ ६ ॥ की कहु निरखह भंझुक भङ्ग । धनु हमें सौंप गेल अपन अनङ्ग ॥६॥ कञ्चने कामे गढल कुच कुम्भ । भड़इते भनव देइते परिरम्भ ॥१॥ कैतव करथि कलामति नारि । गुन गाहक पहु बुझथि विचा भनइ विद्यापति न करहि बाध | आसा बचने पुरहि धौन सा गरुडनरायन नन्दन जान । राए सिवसिंह लखिमा देइ रमान ॥१६॥ विस किसलय कॉति ॥२॥ राधा । २२० हठे न हलच मोर भुज जुग जाति । भाड़ि जाएब विस किसलय के हठ न करिय हरि न करिय लोभ । प्रारति अधिक न रह सुख समि हटिए हलिय निग्र नयन चकोर । पीवि हलत धसि सासमुख भी परसि न हलवे पयोधर मोर ! भाड़ि जाएत गिरि कनक केट भनइ विद्यापति ३ रस भान । लखिमा पति सिवसिंह नृप जा" स सासमुख मोर ॥ ६ ॥ गरि कनक कटोर ।।८। सिह नृप जान ||१०