पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१२०

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११४ विद्यापति ।

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- - राधा । गुन अगुन सम कय मानए भेद न जानए पहूँ । निअ चतुरिम कत सिखाउबि हमहु भेलिहु लहू ॥२॥ साजनि हृदय कहो तोहि । जगत भरल नागर अछए बिहि छललिह मोहि ॥४॥ काम कला रस कत सिखाउबि पुच पछिस न जान । भसे बेरा निन्दे बैकुल किछु न ताहि गेन ॥६॥ राधा । २२४ : कुटिल विलोक तन्त नहि जान । मधुरह बचने देइ नाह। मनसिज भङ्गे वचन मनै जेओ । हृदय बुझाए बुझाए नाह कि सखि करव कुञान परकार । मिलल कन्त मोहि गोप । कृपट गमन हमें लाउलि वेरी । बाहु मूल दरसन है। कुच जुग वसन सम्भरिकहु देल । तइयोन मन तन्हिह्नवहार विमुख होइते वे पर उपहास । तन्हिकै सड़े कला सह कि कए कि करव हमे फखइते जाए । कह दहअरे सखि जिव बुझाए बुझाए नहिं सेओ ।। कन्त मोहि गोप गमार । भूल दरसन हास हेरी ।। ५ । केह दुहु अरे सखि जिवन उपाए ।