पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१२१

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विद्यापति । ११५

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सखी । २२५ वड़ कौशल तुय राधे । किनल कन्हाई लोचन आधे ॥ ३ ॥ ऋतुपति हटवए नहि परमादी । मनमये मधय उचित मूलवादी ॥ ४ ॥ हिज पिक लेखक मास मकरन्दा | कॉप भमर पद साखी चन्दा ॥ ६ ॥ वहि रतिरङ्क लिखापन माने । श्री सिवसिंह सरस कवि भाने ॥ ८ ॥ सखी । २२६ सॉझक बेरि उगल नव ससधर भरमें विदित सबतह ।। कुण्डल चक्र तरासे नुकोएल दुर भेल हेराथ राह ॥ २ ॥ जनु वैससि रे बदन हाथ चलाइ। तुय मुख चाङ्गम अधिक चपल भेल कृति खन धरच नुकाइ ॥ ४ ॥ रतोपल जनि कमल वैसाोल नील नलिन दलतहु । तिलक कुसुम तहु माझ देखिकहु भमर आवयि लहु लहुः ।। ६ ।। पानि पलचे गत अधर विम्ब रत दसन दालिम विज तेरे । कीर दूर भेल पास न श्रावए भौह धनुहि के भेरे ॥ ८ ॥