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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१२७

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विद्यापति । १२५ दूती ।। २४५ प्रणयि मनमथ करहि पाएत । मनक पाछे देह जाएत ॥ २ ॥ | भूमि कमालनि गगन सूर । पेम पन्था कतए टूर ॥ ४ ॥ | वाध न करहि रामा । पुर विलासिनि पिग्रतम कामा ॥ ६ ॥ बदन जिनिकहु करसि भन्दा । लग न आओत लाजेचन्दा ॥ ८ ॥ तेहि सङ्किय पथ उजोर । गमन तिमिरहि होएत तौर ॥१०॥ | काज संसय हृदय बङ्का । कत न उपजए बिरह सङ्का ॥१२॥ सबहि सुन्दरि साहस सार । तेहि तेज के करए पार ॥१४॥ | सकल अभिसार सिद्धिदायक । रूपे अभिनव कुसुम सायक ॥१६॥ | राए सिवासिंह रस अधार । सरस कह कवि कण्ठहार ॥१८॥ सखी । २४६ मृगमद पङ्क अलका । मुख जनु करह तिलका ॥ २ ॥ निपुन पुनिम के चन्दा । तिलके होएत गए मन्दा ॥ ४ ॥ सहजीह सुन्दरि चडि राही । कि करवि अधिक पसाही ॥ ६ ॥ उजर नयन नलिना । काजरे न कर मालना ॥ ८॥ दूधक धोएल भमरा । मसि बुडि जाएत सामरा ॥१०॥ पयोधर गोरा । उलटल कनय कटोरा ॥१२॥ विल न करू । हिमे बुडि जाएत सुमेरू ॥१४॥ ' त कवी । कतए तिमिर जहॉ रवी ॥१६॥