पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१२८

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१२४ विद्यापति । दूती । ३४३ चरण नुपुर उपर सारी । मुखर मेखल करे निवारी ॥ २ ॥ अम्बरे समरि देह झपाइ । चलहि तिमिर पथ समाइ ॥ ४ ॥ समुद् कुसुम रभस रसी । अवहि उगत कुत ससी ॥ ६ ॥ आएल चाहिश्र समखि तोरा । पिसन लोचन भम चकरा ॥ ८॥ अलक तिलक न करे राधे । अड़े बिलेपन करहि वाधे ॥१०॥ तजे अनुरागिनि ओ अनुराग । दृषण लागत भूपण ली। भर्ने विद्यापति सरस कवी । भूपतिकुल सरोरुह रबी ॥१४॥ ठूती । २४४ चान्द वदनि धनि चान्द उगत जुबे । दहक उजोरे दुरहि सजो लख चल गजगामिनि जावे तरुन तम् । किम्बा कर अभिसाराह उप चान्दवदनि धनि रयनि उजोरि । कोने परि गमन होएत सखि भो तोहे परिजन परिमल दुरबार । दुर सञो दुरजने लव चौंदिन चकित नयन तोर देह । तोहि लए जाइते भ॥९ प्रागरि अएल है पराएत काज । विफल भेले मोहि जाइत राह सजो लखत सवै ॥ ३ ।। साहि उपसम || ४ ॥ मन होएत सखि मोरि ॥ ६ ॥ ना दुरजने लवच अभिसार ॥ ८॥ जाइते मोहि सन्देह ॥१०॥ माहि जाइते लाज ॥११२