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विद्यापति । १६३
राधा । ३५६. अरुणे किरन किछ अम्वर देल । दीपक सिखा मलिन भए गेल ॥ २ ॥ हठ तेज माधव जएवा देह । राखए चाहिश गुपुत सिनेह ।। ४ ।। दुरजने जाएत परिजन कान । सगर चतुरपन होएत मलनि ॥ ६ ॥ अमर कुसुम रमि न रह अगोरि । के नहि चेकत करए निअ चारि ॥ ८ ॥ अपनेञो धन हे धनिक धर गए । परक रतन परकट कर कोए ॥१०॥ फाव चरि जौ चेतन चोर । जागि जाएत पुर परिजन मोर ॥१२॥ भनइ विद्यापति साख कह सार । से जीवन जे पर उपकार ॥१४॥ राधा । ३६० पुरल पुर पुरजन पिसुने जामिनि आधे अंधार । चाहु तरि हरि पलटि जाएव पुनु जमुना पार ॥ २ ॥ ऐ कुल कुलकलङ्क डराइ को कुले आति तोरि । पिरत लागि पराभव सब इथि अनुमति मोरि ॥ ४ ॥ कान्हा तेज भुज गिम पास ।। पहु जनले दुरंत वाढत होएत रे उपहास ॥ ६ ॥ जगत कत न जुब जुवती कत न लाबए पेम । वापु पुरुप विचखन चाहिअ जे कर आगिल खेम ॥ ८॥ गोचर एक मोर पए राखव राखवि अश्रो लाज । कबहु मुख मलान न करव होएत पुनु समाज ॥१०॥