पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१३७

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विद्यापति । १३५ सखी । दुहु रूप लावनि मनमथ मोहिनि निरखि नयन भुलि जाय । रजनी जनित रति विशेष अलापने आलस रहल दुहु गाय ॥२॥ चॉचर कुन्तल ताहे कुसुमदल लोलत आनहि भॉति ।। दुहु दोहा हेरि मुख हृदय वाढल सुख बोलत भूलत पॉति ॥४॥ निज निज मन्दिर नागरि नागर चलइते करु अनुबन्ध । बिरह बिपानले दुहु तनु जारल लोचने लागल धन्ध ॥६॥ भितक चीत पुतलि सन दुहु जन रहल विदायक बेला । प्रेम पयोनिधि उछल उछल पड्डु चेतन अचेतन भेला ॥८॥ दुहु जन चीत हेरि सहचरि घन घन गगनहि चाय । रजनी पोहोओल सब जन जागल से डरहि अधिक डराय ॥१०॥ शेखर बुझि तब करि कत अनुभव दुहु सङ्ग भङ्ग कराव। निज निज मन्दिरे गमन करल दुहु गुरुजन भेद नहि पाव १२॥ सखी । २६६ अरुन लोचन धूमि घुमाएल । जनि रतापल पवने पाओल ॥ ३ ॥ आकुल चिकुरे बदन झापल । जनि तमाचन्ने चॉद चापल ॥ ४ ॥ माधव ककें जाइति बासा । देखि सखी जन से उपहासा ॥ ६ ॥ फुजलि नीची अनि मेराउलि । जनि सुरसरि उतरे धाउलि ।। ८ ।। नखखत देल कुच सिरीफल । कमले झॉपि कि हो कनकाचल ॥१०॥ भने विद्यापति कौतुक गाओल । इ रस राए सिवसिंहे पाओल ।।१२।।