पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१४१

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विद्यापति । १३७ । सखी । २६६ उधसल केसपास लाजे गुपुत हास रजनि उजागरे मुख न उजला । नख पद सुन्दर पीन पयोधर कनक सम्भु जनि केसु पुजला ॥ २ ॥ नननन कर सखि परिनत ससिमुखि सकल चरित तोर बुझल बिसेखी ।। ३ ॥ अलस गमन तोर बचन बोलसि भौर मदन मनोरथ मोहगता । जृम्भसि पुनु पुनु जासि अरस तनु तपे छुइलि मृणाल लता ॥ ५ ॥ चास पिन्धु विपरित तिलक तिरोहित नयन कजर जले अधर भरु । एत सबे लछन सङ्ग बिचच्छन कपट रहत कति खन जे धरु ॥ ७ ॥ भने कवि विद्यापति अरे बर जैवति मधुकरे पाउलि मालति फुललि । हासिनि देवि पति देवसिंह नरपति गरुडनरायन रङ्गे भूललि ॥ ६ ॥ सखी । | २७० सुन्दरि वेकत गुपुत नेहा ।। वञ्चित आजु करय नहि पारव साखि देल तुय देहा ॥ २ ॥ सघने अलिस सखी तुय मुखमण्डल गण्ड अधर छवि मन्दा । कत रस पाने कयल सब नीरस राहु उगिलल चन्दा ॥ ४ ॥ जागि रजनि दुहु लोहित लोचन अलस निमिलित भाती । मधुकर लाहित कमल कोरे जनि शुति रहल भदे माती ॥ ६ ॥ वेकः पयोधरे नखरेख भूखल ताहे परल कच भारा । निज रिपु चॉद कलानिधि हेरइते मेरु पडल अँधियारा ॥ ८॥ नव कबिशेखर कय नइ पारत दौख सपति करि जानी । कत शत-चेरि चोरिकरु गोपन वेरि एक वेकत वानी ॥१०॥ 18