सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

१३६

विद्यापति । राधा । २७३ दुर सिनेहा बचने बाढल मनक पिरति जानि । अलपे काजे बड़ी दुर ऑतर करमे पायोल अनि ॥ २ ॥ चरन नूपुर घन शबदए चान्दहु राति उजारि । ननन्दि वैरिनि निन्दे न सोए आवे अनाइति मोरि ।। ४ ।। दूती बोले बुझावह कान्हू ।। आजुक रअनि आए न होएत हृदये कोपथि जनु ॥ ६ ॥ चरन नुपुर करे उतारव सामर वसन तनु ।। खेड़हु कउतुके ननन्द चोधवि विलॅब लगिए जनु ॥ ८ ॥ ओ भरे लागल नव सिनेहा ऐ भरे कुलक गारि ।। सकल पेम सम्भारि न होएते हठे विनासति नारि ।। १० ।। भन विद्यापति उगन्त सेविय भदन चिन्तथु आउ । पिरति कारने जिव उपेखव हैं बेरि होउ कि जाउ ॥ १२ ॥ दूती । २७४। यदि तोरा नहि खन नहि अवकाश । परके जतने कते देल विसवारी ।। २ ॥ वेशवास कई कके शुतह निचीत । चारि पहर राति भमत सुचीत ॥ ४ ॥ इराधा । कर जोर पइँया पर कहवि विनती । विसरिन लविए पुरुव पिरिती ॥ ६ ॥ प्रथम पहर राति रभसे बहला । दोसर पहर परिजन निन्द गेला ॥ ८ ॥ निन्द् निरुपइत भेल अधराति । तावत उगल चन्दा परम कुजाति॥१०॥ भनहि विद्यापति तखनुक भाव । जेह पुनमत सेह जन पय पाव ॥१२॥