पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१४४

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विद्यापतिं ।

= == सखी । २७५ कानने कातर कुलवति राहि । चकित नयन घन दश दिशि चाहिं ॥ २ ॥ कोकिल कंजरवें बिकल परान । गुनि गुनि भाविनि भैलि निदान ॥ ४ ॥ उपसिउषसि खसिखसिपुडनोर। गद गद कण्ठ शबद घन घोर ॥ ६ ॥ ऐसन आयलि तपनक गेह । पूजा उपहार तेहिं राखलि सेहं ॥८॥ तेहि परनाम करि बैठलि धन्द् । सखि गन कौतुक करु नाना छन्दै ॥१०॥ उतपत तेजत दीघ निशास । खने रोदन करु खंनं करु हास ॥१२॥ कह कबिशेखर सुनु सुकुमारि । धइरज धए रह मिलत मुरारि ॥१४॥ सखी । २७६ हरिणनयनि धनि चकित निहारनि अति उतकण्ठित भेला ।। सजन सभ जन तर्नु मन जीवन सौतिनि करि विहि देला ॥ २ ॥ खने खन उठन खने खन वैसत उतपत तेजत शासा ।। खने खन चमकइ खने खन कम्पइ गद गद कहतहि भासा ४ ॥ कुलगुण गौरव अंतिशय सौरभ वाम पाय ठेलले ताय । दारुण प्रेम थेह नहि मानत पलके पलके तलपाय ॥ ६ ॥ अरुणित आनन नारे भरु लोचन पिया पथ हेरत राहि ।। शिशु पशु सङ्गत करि हरि श्रोत गोखुर धुलि उछिलाहि ॥ ८ ॥ कह कविशेखर धनि पुनि हेरह आयात नागर राज । तुर्य मन मानस अति खने पूरव हेरव पन्थक माझ ॥१०॥