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१४२ विद्यापति ।
राधा । २६० कैतुक चललि भवनके सजनि गे सङ्ग दश चौदिश नारी । विच विच शोभित सुन्दर सजनि गे जनि घर मिलत मुरारी ॥ २ ॥ लइ अभरण कए पोडश सजनि गे पहिर उतिम रङ्ग चीर । देखि सकल मन उपजल सजनि गै मुनिहुक चित नहि थीर ॥ ४ ॥ नील वसन तन घेरलि सजनि गे शिर लेल घोघट सारी । लग लग पहुके चलइते सजनि गे संकुचल अङ्कस नारी ॥ ६ ॥ सखि सव देल भवनके सजनि गे घुरि आइल सभ नारी ।। कर धए लेल पहु लगकह सजनि गे हेरइ बसन उघारि ॥ ६ ॥ भय वर सनमुख बेलइ सजनि गै करे लागल सबिलासे ।। नव रस रीति पिरीति भेल सजनि गे दुहु मन परम हुलासे ॥१०॥ विद्यापति कवि गाग्रोल सजनि गे इ थिक नव रस रीति ।। बयस युगल समुचित थिक सजनि गे दुइ मन परम पिरीति ॥१२॥ राधा । २८१ घर गुरुजन पुर परिजन जाग । काहुकलोचन निन्दन लाग ॥ २ ॥ कौनपरि जुगुतिगमन होएतमोर । तुम पिचि चाढल चान्द उजोर ॥ ४ ॥ साहसे साहिअ प्रेम भंडार । अबह न अवय करम चन्दार ॥ ७ ॥ दुहु अनुमान कयल विहि जोर । पॉखि न देलक विधाता भोर ॥ ८॥ भनइ विद्यापति जदि मन जाग । बडे पने पाविअ नत्र अनुराग ॥५॥