पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१४७

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विद्यापति । १४३। सखी । २६२ नव अनुरागिनि राधा । किछु नहि मानए बाधा ॥ २ ॥ एकलि कएल पथान । पथ चिपय नहि मान ।। ४ ।। तेजल मणिमय हार । उच कुच मानए भार ॥ ६ ॥ कर सजे कङ्कण मुदरि । पयहि तेजल सगरि ॥ ८ ॥ मणिमय मञ्जिर पाय । दुरहि तेजि चलि जाय ॥१०॥ यामिनि घन अंधियार । मनमथ हिय उजियार ॥१२॥ विघिनि विथारल चाट । पैमक आयुधे काट ॥१४॥ विद्यापति मति जान । ऐसन न हेरि अनि ॥१६॥ सखी । | २८३ गुरुजन नयन पगार पवन जो सुन्दरि सतरि चललि । जनि अनुरागे पाछु धरि पैललि करे धरि कामे तिडली ॥२॥ कि आरे नबि अभिसारक रीती ।। के जान कोने विधि कामे पढ़ाउलि कामिनि तिहुयन जीती ॥४॥ अम्बर सकल विभूपन सुन्दर घनतर तिमिर सामरी ।। केहु कतहु पथ लखहि न पारलि जनि मसि चुड़लि भमरी ।।६।। चेतन अागु चतुरपन कइसन विद्यापति कवि भाने । राजा सिवसिंह रूपनरायन लखिमा देवि रमाने ॥८॥