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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१५०

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१४४ विद्यापति । चलल

सखी । २८४ प्रेम रतन खनि रमनी शिरोमनि प्रिय विरहानल जानि ।। अन्तर जर जर । ' नयने निझरे झर वदने न निकसय वानि ॥ २ ॥ आजु की कब हरि अनुराग । तैखने कानन चललि बिकल मन कुल धरम लाज भय भाग ॥ ४ ॥ मन्थर गति अति । चलइ ने पारथि चलतहि तबहुँ तुरन्त ।। हिया अति धसमसि शासह मुखशशि | श्रम जल कने चरिखन्त ॥ ६ ॥ सङ्गिनि सहचरि दूरहि परिहरि | राहि एकाकिनि कुजे । बल्लभ-मुरछित हरि ज़ियाओत रूप सुधारस पुञ्ज़े ॥ ८ ॥