पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१६

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विद्यापति ।

( सखी के प्रति सखी ) २५ जाइति देखलि पथ नागरि सजनि गै गरि सुबुधि सैयानि । कनक लता सनि सुन्दरि सजनि गे विहि निरमाओले शानि ॥२॥ हस्ती गमन जकाँ चलइति सजनि गै देखइत राजकुमारि । जनिकर एहनि साहागिनि सजनि गे पाओल पदारथ चारि ॥४॥ नील बेसन तन घेरलि सजनि गे शिर देल चिकुर समारि । तापर भमरा पिवय रस सजनि गे पसल पॉखि पसारि ॥६॥ केहरि सम कटि गुन अछि सजनि गे लोचन अम्बुजधारि । विद्यापति कवि गाओल सजनि गे गुन पाऔलि अवधारि ॥८॥ | ( १ ) गरि=अग्रगण्या। (३) जक=तुल्य । (४) पदारथ चारि= चतुर्वर्गफल । ( ७ ) केहरि=केशरी, सिह । सखी । २६ पय गति नयने मिलल राधा कान । दुहु मने मनसिज पुरल सन्धान ॥२॥ दुह मुख हेरइते दुहु भेल भोर । समय नहिं बूझत अचतुर चोर ।।४।। विदगधि सङ्गिनि सच रस जान | कुटिल नयने कयल सावधान ॥६॥ चलले राजपये दुहु उरझाइ । कह कविशेखर दुहु चतुराई ॥८॥ (७) उरझाइ मलिन ।