पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१७

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विद्यापति । १५ ठूती ।। | २७ भल भेल दम्पति शैशव गेल । चग्न चपलता लोचने लेल ॥२॥ दुहुक नयन कर दूतक काज । भूपण भए परिणत भेल लाज ॥४॥ आवे अनुखन देअ अचर हथि । बाज़ सखी सजे नत कए भाय ॥६॥ हमे अवधारले सुन सुन कान्ह । नागर करथु अपन अवधान ॥८॥ भेउ धनुपि गुण काजर रेख । मारति रहत पोख अवसेख ॥१०॥ रस मय विद्यापति कवि गाव । राजा शिवसिंह बूझ रस भाव ॥१२॥ (१०) पेखि=पुख, तीर का अर्धाभाग । (माधव का अनुराग ) ठूती । २८ फूजाल कवरि अवनत आनन कुच परसए परचारि । कामे कमल लए कनक सम्भू जनि पूजलि चामर ढारि ॥२॥ पलटि हेरि हल पेयसि वयना मदन सपथ तोहि रे ॥३॥ समिर लोमलता कालिन्दी, हारी सुरसरि धारा ।। मज्जन कए माधवे वर मागल पुनु दरसन एक वेरा ॥५॥ (१) परचारि=प्रकाश करके। (४) लमिलता यमुना और हार गगा तुल्य । (उभय का संगम) (५) मान= अवगाहन अर्थात मग्न दृष्टि से देखकर।