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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१६३

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विद्यापति । १५७ दूती । जागल जामिक जन चउदिस गरज घन सासु नहि तेजए गेहा रे।। तइओ से चलले । | बुधि चले कउसले एत वड़ तोहर सिनेहा रे ॥२॥ ए हरि तोहर थैरज जत से सबे कव कत धनि गेलि सून सँकेता रे।। जदि न अएला है तोहे। धनि से कहलि कोहे थोइआ गेलि मालति मोला रे ॥४॥ सगरि रअनि जागि | तुअ दरसन लागि तरुतर तितलि वाला रे।। भनइ विद्यापति । सुन बर जउवति नीन्द जगइते सन्देहा रे ॥६॥ सखी । ३०६ कह कह सुन्दर न कर बेयाजे । पुरुव सुकृत केहु पाओल मदन महासिधि काजे ॥२॥ मृगमद तिलक अगर अनुलेपित सामर वसन समारि । हेरह पछिम दिश करवन होयत निश गुरुजन नयन निहारि ॥४॥ विनु कारन गृह कर गतागत मुनि नयन अरविन्दा । अति पुलकित तनु विसि अकामिक जागि उठलि सानन्दा ॥६॥ चेतन हाथ लाथ नहि सम्भव विद्यापति कवि भाने । राजा शिवसिंह रूपनरायन सकल कला रस जाने ॥८॥