पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१६२

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१५४ विद्यापति । सखी । | ३०१ रिपु पचसर जानि अवसर सब सिन साजे ।। हेरि सून पथ घटी मनोरथ के जाने कि होइति आजे ॥ २ ॥ निफल भैलि जुवती । हरि हरि हरि राति तेज हरि | पलटाल नहि दूती ॥ ४ ॥ साजि अभिसारा पड़ि अन्धकार उगि जनु जा भोरा ।। आरतिवेरा जो हो मेरा लाख गुन सुख थोरा ॥ ६ ॥ राधा । ३०२ हिम कर किरन हिम अनिवार । दिशि दिशि हिमगिरि पवन विथोर ॥२॥ चललि रमनि धनि अकुल चीत । सङ्केत केलि निकुञ्जे उपनीत ॥ ४ न देखि तेहि बर नागर कान । कातर अन्तर आकुल परान ।। गुरुजन नयन पाश गन बारि । आऑल कुलवति चारित उघारि ॥ इथे यदि न मिलल से वर कान । कह साख कैसने धरब पान " कह कविशेखर सुन्दर राहि। धैरज धर हम अानव जाहि ॥१३॥ ६