पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१६५

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विद्यापति ।

दूती। ३०७ जागल जामिक जन चउदिस गरज घन | सासु नहि तेजए गेहा रे।। तइओ से चलले बुधि चले कउसले एत बड़ तोहर सिनेहा रे ॥२॥ ए हरि तोहर थैरज जत । से सवे कहब कत धनि गेलि सुन संकेता रे।। जदि न अएला हे तोहे धनि से कहूलि कोहे। थोइ गेलि मालति माला रे ॥४॥ सगरि रअनि जागि। | तुय दरसन लागि | तरुतर तितलि चाला रे। भनइ विद्यापति सुन चर जयति नीन्द जगइते सन्देहा रे ॥६॥ सखी । कह कह सुन्दर न कर वेयाजे । पुरुवं सुकृत केहु पाल मदन महासिनि । मृगमद तिलक अगर अनुलपित सामर बन्न र अनुलेपित सामर वगन नमार । लिम दिश करवन हथित नि गुम्जन नयन निहारि {{४॥ वन कारन गृह करह गतागत मुनि नयन अरवः । अति पुलकित तनु विहसि अकामिक जाति, गि इटल सानन्दा ॥६॥ चेतन हाथ लाथ नहि सम्भव विद्यापति राजा शिवसिंह रूपनरायन सकल कलर छ नहि सम्भव विद्यापति कवि माने । = ॥