पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१७४

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१६६ । विद्यापति । ३२५ सखि हे नोहे हमर बहु सेवा ।। ऐसन वानी कबहूँ जनि चलचि जाति कुल किये लेवा ॥२॥ गोकुल नगरे काहु रतिलम्पट यौवन सहज हमारा । तुहू साख रभसे माहे जनि चोलवि लोक करव पतियारा ॥४॥ केशर कुसुम हेरि हम कौतुके भुजयुगे मेटल ताही । दाडिम भरमें पयोधर उपर पड़लहु कीर लोभाही ॥ ६ ॥ उभय चकित भुजे इति उति पेखल हैं बेश भै गेल अनि । इथे पारवाद कहसि मोहे वैरिन इह कबिशेखर भान ॥८॥ राधा । ३२६ खरि नरि बेगे भासलि नाइ । धरएन पारथि बाल कन्हाई ॥ २ ॥ ते धेसि जमुना भेलाहु पार । फूटल बलया टूटल हार ॥ ए सखि ए सखि ने बोल मन्द । विरह बचने बाढ़ल दन्द ॥ ६ ॥ कुन्तल खसल जमुन माझ । ताहि जोहइते पड़लि साँझ ॥ अलक तिलक ते वहि गेल । सुध सुधाकर वदन भल ॥ तटिनि तट न पाइअ बाट । ते कुच गाडल कठिन काट । भने विद्यापति निग्न अवसाद । वचन कउसले जिनिअ वाद ।