पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१७८

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विद्यापति । सखी । ३३१ हमर वचन सन सजनि । मान करवि आदर जानि ॥ २ ॥ जव किछु पिया पुछब तोय । अवनत मुख रहवि गोय ।। ४ ।।। जब परिहरि चलए चाहि । कुटिल नयाने हेरवि ताहि ।।६।। जब किछु आदर देवह थोर । झापि देखावि कुच और ॥८॥ वचन कहब कॉन माखि । मान करबि आदर राखि ॥१०॥ जब करे धरि निकट अनि । उहु उहू कए कहबि वानि ॥१३॥ भनइ विद्यापति सोइ से नारि । मानक पिरिति राखय पारि ॥१४॥ सखी । ३३२ सखि अवलम्चने चलवि नितम्बिनि थम्भव थम्भ समीपे । जब हरि करे धरि कोर वइसाब ऑचरे चोराथवि दीपे ॥२॥ सखि मान न रहत उदासे । सत सम्भासने वचन न परगासब जेहन कूपन असोयाले ॥४॥ लहु लहु हसि हसि मुख मोडबि दशन दे व हासे । वदन आध विनु साध न पूरव कुच दरसाव पासे ॥६॥ वहुविध आदरे पहुक कातर लखि विमुखि बइसब बाम । केरे कर ठेलच आलिङ्कन चारव सेज तेजि बइसव ठामे ॥८॥ करे क्र जेरि मरि तनु उठव अम्बर सम्बरि पीठे । भनइ विद्यापति उतकट सङ्कट उपजायव दीठे ॥१०॥