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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१८३

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विद्यापति । १७५ राधा । ३४० सहस रमनि सौं भरल तोहर हिय करु तनि परसि न त्यागे । सकल गोकुल जनि से पुनमति धनि कि कहब ताहेरि भागे ॥२॥ पद जावक हृदय भिन अछ और करज खत ताहे । जाहि जुवति सङ्गे रअनि गमौलह ततहि पलटि बरु जाहे ॥४॥ नयनक काजर अधरें चोराले नयन अधरकहु रागे । बदलल वसन नुकाव कृत खन तिला एक कैतव लागे ।।६।। बड़ अपराध उतर नहि सम्भव विद्यापति कवि भाने । राजा शिवसिंह रूपनरायन सकल कलारस जाने ॥५॥ जाचे रहिछ तुय लोचन आगे । ताचे वुझावह दिढ़ अनुरागे ॥ ३ ॥ नयन ते भेले सचे किछु आने । कपट हे माधव कति खन वाने । वुझल मधुरपति भलि तुअ रीति । हृदय कपट मुखे करह पिरीति ॥६॥ विनय वचन जत रस परिहास } अनुभवे बुझल हमे सेयो परिहास । हसि हसि करह कि सब परिहार । मधु विखे माखल सर परहार ||१०॥