पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१८८

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१७८ विद्यापति । राधा । अयमहि गिरि सम गौरव भेल । हृदय हार ऑतर नहि देल ॥ ३ ॥ सुपुरुप वचन कएल अवधान । भल मन्द दुअग्रो बुझच अवसान ॥४॥ चल चल माधव भलि तुअ रीति । पिसुन वचने परिहलि पिरीति ॥६॥ परक वचने आपल कान । तहि खने जानल समय समान ॥८॥ आवे अपदहू हरि तेज अनुरोध । काहु का जनु हो विहिक विरोध ॥१०॥ न भेले रङ्ग रभस दुर गेल । इथि हम खेद एक नहि भेल ॥१२॥ एके पए खेद जे मन्दा समाज । भलेहु तेजल आवे ऑखिक लाज ॥१४॥ भनइ विद्यापति हरि मने लाज । काहु का जनु हो भन्दा समाज ॥१६॥ सखी । ३४७ अहनिसि वचने जुडओलह कान । सुचिरे रहत सुख इ भेल भान ॥२॥ अवे दिने दिने हे वुझल विपरीत । लाज गमाए विकल भेल चीत ॥४॥ विहिक विरोधे मन्दा सञो भेट । भॉड छुइल नहि भरले पेट ॥६॥ लोभे करिअ है मन्द जत काम । से न सफल हो जो विहि वाम ॥८॥ राधा । ३४८ बोलल बोल उत्तिम पए राख । नीच सवद जन की नहिं भाख ॥ ३ ॥ हमें जे उत्तम कुल गुनमति नारि । एत वा निश्च मने हलब विचारि ॥ ४ ॥