सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

| १७८ विद्यापति ।। राधा ।। ३४६ • प्रथमहि गिरि सम गौरव भेल । हृदयह हार ऑतर नहि देल ॥ ३ ॥ सुपरुप वचन कएल अवधान । भल मन्द दुअो बुझवे अवसान ॥४॥ चल चल माधव भलि तुअ रीति । पिसुन वचने परिहरलि पिरीति ॥६॥ परक वचने आपल कान । तहि खने जानल समय समान ॥८॥ आवे अपहु हरि तेज अनुरोध । काहु का जनु हो विहिक विरोध ॥१०॥ न भेले रङ्ग रभस दुर गेल । इथि हम खेद एक नहि भेल ॥१२॥ एके पए खेद जे मन्दा समाज । भलेहु तेजल अवे ऑखिकलाज ॥१४॥ भनइ विद्यापति हरि मने लाज । काहु का जनु हो मन्दा समाज ॥१६॥ सखी । ३४७ अहनिसि वचने जुडओलह कान । सुचिरे रहत सुख इ भेल भान ॥२॥ अवे दिने दिने हे बुझल विपरीत । लाज गमाए विकल भेल चात ॥४॥ विहिक विरोधे मन्दा सञो भेट । भॉड छुइल नहि भरले पेट ॥६॥ लोभे करिअ है मन्द जत काम । से न सफल हो जो विहिं वाम ॥२॥ राधा । ३४८ चौललि बोल उत्तिम पए राख । नीच सवद जन की नहिं भाख ॥ २ ॥ हमे जे उत्तिम कुल गनमति नारि । एत वा निअ मने हलब विचारि ॥ ४ ॥