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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१९१

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विद्यापति । १७६ | सिनेह बढायोल सुपुरुस जानि । दिने दिने कएलह आसा हानि ॥ ६ ॥ | कत न जगत अछ रसमति फूल । मालति मधु मधुकर पए भूल ॥ ८ ॥ गेल दीन पुनु पलटि न आव । अवसर बहला रह पचताव ॥ १० ॥ राधा । ३४६ झटक झोटल छोडल ठाम । कएल महातरु तर बिसराम ॥ २ ॥ ते जानल जिव रहत हमार । सेष डार टुटि परल कपार ॥ ४ ॥ चल चल माधव कि कहब जानि । सागर अछ्ल थाह भेल पानि ॥ ६ ॥ हम जे अनओले की भैल काज । गुरुजने परिजने होएत लाज ॥ ८ ॥ हमरे वचने जे तोहहि बिराम। फेकले चेप पाव पुनु ठाम ॥१०॥ राधा । सुपुरुस भासा चौमुख वेद । एत दिन बुझल अछल नहि भेद ॥२॥ नितहि अछ सब मन जाग । तोह बोलि विसरल हमर भाग ॥ ४ ॥ चल चल माधव की कहब जानि । समयक दोसे आगि बम पानि ॥ ६ ॥ रयनिक वन्धव जानि चन्द । भल जन हृदय तेजए नहि मन्द ॥ ८॥ कलियुग गतिके साधु मन भङ्ग । सबे विपरीत करव अनङ्ग ॥ १० ॥ माधव । ३५१ | ए धनिमानिनि करह सञ्चति । तुय कुच हेमघटहार भुजङ्गिनि ताक उपर धर हात ।।२।। तोहे छाडि हम यदि परश कर कोय । तुय हार नगिनि काटच मोय ॥ ४ ॥