पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१९७

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विद्यापति । १८३। माधव । ३५७ बदन सरोरुह हासे नुकोलह ते शाकुल मन मोरा ।। उदित चन्दा अमिय न मुञ्चए की पिव जिउत चकरा ॥ २ ॥ मानिनि देह पलट दिठि मेला । सगरि रअनि जदि कोपहि गमवह केलि रभस कोन वेला ॥ ४ ॥ तोर नअन ? पथहु न सञ्चर अजुगुत कह न जाइ । अरुन कमलके कन्ति चौरोलह ते मने रहलि लजाइ ॥ ६ ॥ कामिनि कोपें मनोरथ जागल विद्यापति केबि गावे । जएमति देवि वर सन गहि सङ्कर बुझए सकल रस भावे ॥ ८ ॥ माधव । ३५८ चउदिस जलदै जामिनि भरि गेलि । धारानें धनि वेश्रापिति भैलि ॥ २ ॥ गगन गरजे जागल पञ्चबान । एहना सुमुखि उचित नहि मान ॥ ४ ॥ नागरि पिसुन बचने करु रोष । पय परलहु नहि कर परितोस ॥ ६ ॥ विहि समुचित धरु वामा नाम । हमे अनुमापि हलल फल ठाम ॥ ८ ॥ नागरि बचन अमिय परतीति । हृदय गढल है पखानहु जाति ॥ १० ॥ माधव । ३५६ पीन कनया कुच "'" ५ ।। पने चित हरि लेल मोर ।। ३ ।। परिहर सुन्दरि । । भ्रमर करउ मधुपान ।। ४ ।।