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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२०३

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विद्यापति । १८७ चान्द वदन | कुवलय दुहु लोचन अधर मधुर निरमाने । सगर सरीर कुसुमे तुय सिरिजल किए हु हृदय पखाने ॥४॥ असकति करह ककन नहि परिहह | हार हृदय भेल भारे ।। गिरि सम गरुअ | मान नहि मुञ्चसि अपुरुव तुअ बेवहारे ॥६॥ अवगुन परिहरि हेरह हरखि धनि मानक अवधि विहाने । राजा सिवसिंह रूपनराएन कवि विद्यापति भाने ॥८॥ माधव । आज परसन मुख न देखए तोरा । चिन्ताञ सहज विकल मन मोरा ॥२॥ आएल नयन हटिए को लेसी । पछिलाहु जके हसि उतरो न देसी ॥४॥ ए थर कामिनि जामिनि गेली । अरथिते आरति चौगुन भेली ॥६॥ चन्दा पछिम गेल परगासा । अरुन अलत पुरन्दर यीसा ॥८॥ मानिनि मान कझोन एहु वेरी । तिला एक आड़ेहु डीठि हल हेरी ॥१०॥ १ सयनक सीम तेजि दूर जासी । एकहु सेज भेलाह परवासी ॥१२॥