पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२०६

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| १६३ विद्यापति । दूती । ३७७ माधव इ नहि उचित विचारे । जनिक एहन धनि कामकला सनि से किय करु व्यभिचारे ॥२॥ प्रानहु ताहि अधिक कए मानव हृदयक हार समाने । कोन परिजुगुति आन के ताकव की थिक हुनक गेयाने ॥४॥ कृपिन पुरुप के केयो नहि निक कह जग भरि कर उपहासे । निज धन अछइत नहि उपभोगव केवल पहेिक असे ॥६॥ भनइ विद्यापति सुनु मधुरापति इ थिक अनुचित काजे ।। मागि लायब वित से यदि हो नित अपन करव कोन काजे ॥८॥ माधव । ३७८ मदन कुञ्ज पर वैसल नागर बृन्दा सखि मुख चाहि ।। जोडि युगल कर विनति करत कृत तोरित मिलायब राहि ॥२॥ हम पर राखि विमुख भइ सुन्दरि जवहु चललि निज गेहा । मदन हुताशने म मन जारल जीवने न वान्धइ थेहा ।।४।। तुहु अति चतुर शिरोमनि नागरि तोहे शिखाओब बानि । तुहु विनु हमर मरम नहिं जानत कइसे मिलायब आनि ॥६॥ चन्दन चॉद पवन भेल रिपु सम वृन्दावन वन भेल । मयुर कोकिल कत झङ्कार देत मुझ मने मुनमथ शेल ॥८॥