पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२०९

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विद्यापति । १६.५ कुसुम लता धरि आलिङ्गय तुय कलेवर भाने । परसे विरस भइ गेल माधव मुरछि मदन बाने ॥६॥ सिरिस कुसुम सेज विछावए काम सरे अगेयान । गरल अधिक चन्दन लेपन तेजइते चाह पनि ।।८।। ठूती ।। छौडल अभरन मुरली विलास | पदतले लुटय से पतवास ॥ २ ॥ जाक दरश बिनु झरय नयान । अब नहि हेरसि तकर वयान ॥ ४ ॥ सुन्दरि तेजह दारुन मान । साधये चरने रसिक बर कान ॥ ६ ॥ भागे नीमलय इह साम रसवन्त । भागे मिलय इह समय बसन्त ॥ ८ ॥ भागे मिलय इह प्रेम सड्धाति । भागे मिलय इह सुखमय राति ॥१०॥ आजु यदि मानिनि तेजवि कन्त । जनम गमावि रोइ एकन्त ॥१२॥ विद्यापति कह प्रेमक रीत । जाचित तेजि न होय उचीत ॥१४॥ दूती । ३८४ उमगल जग मम काहु न कुसुम रम परिमल कर परिहार । जकरि जतए रीति ते विनु नही यितिं नेह न विषम विचार ॥२॥ | मालति तोहि विनु भमर सदन्द ।। चहुत कुसुम वन सबही विरत मन कतहु न पिय मकरन्दु ॥४॥