पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्यापति । १६७ तबहूँ तोहर नाम सुमरि गलय शत गुन लोर ॥१०॥ सखी । ३८६ जावे सरस पिया बोलए हसी । ताबे से वालभु तोळे पेअसी ॥२॥ जो पए बोलए बोल निठुर । तो पुनु सकल पेम जी दूर ॥४॥ ए सखि अपुरुच रीति ।। कॅहाहु न देखिअ अइसनि पिरीति ॥६॥ जे पिओ मानए दोसरि परान । तकराहु वचन अइसन अभिमान ॥८॥ तैसन सिनेह जे थिर उपताप । के नहि बस हो मधुर अलाप ॥१०॥ हठे परिहर निअ दोसहि जानि । हसि न बोलह मधुरिम दुइ वानि ॥१२॥ सुरत निठुर मिलि भजसि न नाह ।। का लागि बढ़ावसि पिसुन उछाह ।।१४।।