पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२१२

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१६८ विद्यापति । दूती। ३८७ गगन मडल उग कलानिधि कते नेवारवि दीठि । जखने जे रह तेहि गमाइ जे वहत दीन पीठि ॥२॥ साजनि बड़ वथु उपकार । जाहेरि बचने परहित हो ताहेरि जिवन सार ॥४॥ साधु जन कॉ परहित लागि न गुन धन परान । राहु पियासल चान्द गरासए न हो खीन मलान ॥६॥ न थिर जिवन न थिर जउवन न थिर एहे संसार । गेल अवसर पुनु न पाइअ किरिति अमर सार ॥८॥ कतए राघव राए धरिनी कतए लङ्कापुर बास । कते हनुमते सागर लॉपल किछु न गुनु तरास ॥१०॥ जखने जकर वाङ्क बिधाता सब कला अनुमान । अधिक आपद धैरज करब कवि विद्यापति भान ॥१२॥ सखी। ३८८ चाँद सुधा सम वचन विलास । भल जन ततहि जाएत विसवास ॥२॥ मन्दा मन्द बोलए सबे कोय । पिवइते नीम बॉक मुह होय ॥ ४ ॥ ए सखि सुमुखि वचन सुन सार। से कि होइति भलि जे मुह खार ॥ ६॥ जे जत जैसन हृदय धर गोए । तकर तैसन तत गौरव होए ॥ गौरव ए सख धैरज साध | पहु नहि धरए सतयों से