पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२१९

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विद्यापति। '२०५ तुय रुप साम आखर नहि सुनत तुय रुप रिपु सम मानि । तुय जन सञो सम्भास न करइ कइसे मिलायव अनि ॥४॥ निल वसन वर कॉचक चुरि कर पौतिक माल उतारि ।. . कुरिरद चुरि कर मोति माल चर पहिरन अरुनिम सारि ॥६ असित चित्र उर पर छल मेटल मलयज देइ लगाई ।। मृगमद तिलक धोइ दृगञ्जल कच मुख सञो लए छपाई ॥८॥ एक तिल छल चारु चिबुक पर निन्दि मधुप सुत सामा। तृण अग्ने कर मलयज रञ्जल ताहि छपाओल रामा ॥१०॥ जलधर देखि चन्द्रातप झॉपल सामरि सखि नहिं पास । तमाल तरुगन चुने लैपल शिखि पिक दुरे निवास ॥१२॥ मधुकर डरे धनि चम्पक तरुतल लोचन जल भरि पूर ।। सामर चिकुर हेरि मुकुर पटकल टुटि भै गेल सत चूर ॥१४॥ तुय गुनगाम कह एक सुक पण्डित सुनितहि उठत रोसाइ । पिञ्जर झटकि फटीक पर पटकत धाए धयल तहि जाइ ॥१६॥ मेरु सम भान कोप सुमेरु सम देखि भेल रेनु समान । कवि चम्पति कह राहि मनाइते आप सिधारह कान ॥१८॥ दूती । ४०२ नहि किछु पुछलि रहलि धनि वइसि नई से आइलि चाहरे । परम विरुहि भए नहि नहि नहि कए गेलि दुर कए मोर करे ॥२॥ माधव कह कके रुसल रमनी ।। फते जतने पैमसि परिवोधलि न भैलि निओरेओ आनीं ॥४॥