पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२३२

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विद्यापति । राधा । ४२२ सोलह सहस गोपि मह रानि । पाट महादेवि करवि हे आनि ॥२॥ । वोलि पठओलह्नि जत अतिरेक । उचित न रहल तह्निक विवेक ॥॥ । साजन की कहब कान्ह परोख | वोलि न करिअ बड़ाको दोखे ॥६॥ अब नित मति जदि हरलहि मोरि । जनला चोरे करव की चोरि ॥८॥ पुरवापरे नागरकवोल । दती मति पाओल गए ऑल ॥१०॥ । राधा । ४२३ कञ्चन जोति कुसुम परकाश । रतन फलब बोलि चढाओल आश ॥१॥ तकर मुले देल दुधक धार । फले किछु न हेरिय झनझनि सार ॥ ४ ॥ जाति गोयालिनि हम मतिहीन । कजनक पिरीति मरने अंधान ॥ ६ ॥ हाए हाए विहि मोर एत दुख देल । लाभक लागि मुल डुबि गेल । काव विद्यापति इह अनुमान । कुकुरक लागुल न होय समान ।।" राधा । ४२४ प्रथमक आदरें पुलक भेल जत न गुनल दाहिन बामे । मधुर वचन मधु भरमहि पीउल विप सम भेल परिनामे ॥२॥ केतने मनोरथे अछलहु सुन्दरि नागर भमर हमारे ।। जावे पाव रस तावे रहए वस विनु देासे कर परिहारे ॥४॥