पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्यापति । ३१७ रभसक अवसर की नहि अङ्गिरए कत न करए परवन्धे ।। अवसर चेरि हेरि नहि हेरए फले जानिअ सवे धन्धे ॥६॥ राधा । ४२५ चुझहि न पारल कपटक दीस । अमिय भरमे खाएल हम बीस ॥ २ ॥ अवे परतीति करते हु कोए । सीमर नहि सरलासय होए ॥ ४ ॥ ए सखि की परसंसह काह्न । वचन सुधा सम हृदय पखान ॥ ६ ॥ | मोहन जाल मदन सरे भोलि । आरति की न पठओलहि बोलि ॥ ८ ॥ चौलहिक भल सखि माधव नाम । बडु वोल छड़ परजन्तक ठाम ॥१०॥ | अनुभवि दूर कएल अनुबन्ध । भुगुतल कुसुम भमर अनुसन्ध ॥१२॥ भनइ विद्यापति तोहे सखि भोरि । चेतन हाथ कहाँ रह चारि ॥१४॥ राधा। ४२६ चानन भरम सेवलि हम सजनि पूरत सकल मनकामे । कन्तक दरश परश भेल सजनि सीमर भेल परिनाम ॥२॥ एकहि नगर वसु माधव सजनि परभाविनि चेस भेल । हम धनि एहन कलावति सजनि गुन गौरव दृर गैल ।।४।। अभिनव एक कमल फुल सजनि दौना निमक डार ।। सेहो फुल ओतहि सुखायल सजनि रसमय फुलल नैवार ॥६॥