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पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२३६

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२२२ विद्यापति । राधा । नागर हो से हेरितहि जान । चौसटि कलाक जाहि गेञान ॥ २ ॥ सरूप निरूपिअ कए अनुबन्ध । काठेश्रो रस दे नाना बन्ध ॥ ४ ॥ के बोल माधव के बोल कान्ह । मने अनुमापल निछछ पखान ॥ ६ ॥ बरसहु दादस तुअ अनुराग । दूती तह तकरा मन जाग ॥ ८॥ कतएक हमे धनि कतए गोला । जल थल कुसुम कैसन हो माला ॥१०॥ हि सहए दीपक जोति । छुइले काच मलिन हो मोति ॥१२॥ ई सवे कहिकहु कहिहह सेवा । अवसर पाए उतर हमे देवा ॥१४॥ परधन लोभ करए सब कोइ । करिअ पेम जो आइति होइ ॥१६॥ नागरि जनके बहुल विलास । ककेह वचने राखि गेलि आस ॥॥ राधा। कवहु रसिक सञो दरसन होय जनु दरसने होय जनु नेह । नेह विछोह जनु काहुक उपजय विछोह धरय जनु देह ॥२॥ सजनि दूर कर ओ परसङ्ग । पहिलहि उपजइत पेमक अङ्कुर दारुन विधि देल भङ्ग ॥४॥ जवहु दैव दोप उपजय पेम रसिक संझे जनु होय । कानु से गोपते नेह कर अब एक सवहु शिखाओल मोय ॥६॥ एहन औखध सखि कॅहा नहि पाइअ जनि यौवन जर जाव । असमञ्जस रस सहय न पारिय इह कविशेखर गाव ॥८॥