पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२३७

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विद्यापति । २३३

राधा । ४३७ होअए जनि जञो पुनु होइ । जुवती भए जनमए जनु कोइ ॥२॥ । जुवति जनु हो रसमन्ति । रसो बुझए जनु हो फुलमन्ति ॥४॥ १ मागञो विहि एक पए तोहि । यिरता दिहह अवमानह माहि ॥६॥ | सामि नागर रसधार । परवस जनु होश इमर पियार ||८|| : परवस वुझिह विचारि । पाए विचार हार कञन नारि ॥१०॥ - विद्यापति अळ परकार । दन्द सुमुद होएत जीव दृय पार ||१३॥ ---


राधा। ४३८ अपय सपय कुए पद कत कृमि । न मोहें तुम्बन गर्न मात्र ||२॥ मोझे न जएवें माइ दुजन सङ् । नहि मुन्ताय नमः अवलोक्व नहि ननिक ॥४॥ |ॉम्बिशनमग्नच ॥६॥ विद्यापति कृत्रि रमले गाव । मन्तिटारदिन बुझ ६ मात्र ॥८॥ आया। • अपनहि पेम तरुअर दिन झन किंवा नई और | साखा पलव कुसुमे बेपत गरम दुई दिन । " दिल ला