पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२३९

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विद्यापति । ३२५ | लार्य करसि कत अवसर पाए । देहरि न होए हाथे झपाए ॥६॥ | कुच युग कञ्चन कलस समान । मुनि जन दरसने उगए गैन ॥८॥ | तो वरनागरि अपने गून । कञोंनक देले हो चड़ पूने ॥१०॥ सखी । ४४२ पछी सुनित्र भैलि महादेई कनके नावे वकानी । | गगन परसि रह समीरन सुप भरि के आन ॥२॥ , सुन्दरि अवे की देखह देह ।। विनु हटवई अरय विहुन जैमन हाटक गैह ॥४॥ अपथ पथ परिचय भेले वसि दिन दुइ चारि । सुरत रस खन एके पाविअ जाव जीव रह गरि ॥६॥ दूनी । | ४४३ तिन तुल अरु ता तह मई तह मानिय गरवि अछइते जे वॉल नही अछए से जह सवह चाहि ॥॥ हि । साजनि कसन तोर गयान । जवन रतन तर तश्राधिन केन क्रसि जावे से जडवन तैर सविन ताव पर जवन गेले विपद भले पाईन पुछत के केके न कसि दान ॥४॥ वन नाचे परवस हौए । पुछत कौए ॥६॥