सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

२२४ विद्यापति,।

सखि हे दुरजन दुरनय पाए । मूर जञो मृडहि सञो भाँगल अपदहि गेल सुखाए ॥४॥ कुलक धरम पहिलहि अलि आएल कञोने देव पलटाए । चोर जननि निजञो मने मने झाखो रोझो वदन झपाए ॥६॥ अइसना देह गेह न सोहावए वाहर वम जनि अगि । विद्यापति कह अपनहि आउति सिरि सिवसिंह लागि ॥८॥ ठूती । गगन मडल दुहुक भूषन एकसर उग चन्दा । गए चकोरी अमिय पीवए कुमुदिनि सानन्दा ॥२॥ मालति कॉइए करिअ रोस । ' एकल भमर वहुत कुसुम कमल ताहेरि दोस ।।४।। जातक केतकि नवि पदमिनि सब सम अनुराग ॥ ताहि अवसर तोहि न विसर एहे तौर बड़ भाग ॥६॥ अभिनव रस रभस पोले कोन रह विवेक । भने विद्यापति परहित कर तैसन हरि पए एक ॥८॥ ठूती । ४४१ साथ सुमरु दुअो थिक सार] सय तह गनिय अधिक वेवहार ॥" मालति तोहे जदि अधिक उदास । भुमर जाव आवे कमलिने पास