पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२४३

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विद्यापति । १२६ मानिनि अवहु पलटि चल पिका पअ पल मेटओ सवे अपराध ॥३॥ कइतबे हास गोप तोळे कएलए कर्के कर्के तोरि “उह चडली ।। पि सञो पउरुस ककें तोळे चोललए जिह तोरि टुटि न पडली ॥५॥ सउरस लागि पिअ हिअ अराहिअ वइसे बास न करिया । अछक विपतरु पल्लव मैलव ऑकुर भॉगि हलि ॥७॥ भनइ विद्यापति सुन सुन सुनमति ओल धरि के कर माने । राजा सिवसिंह रूपनराएन लखिमा देवि रमाने ॥६॥ ९ । । ठूती । ४५१ सुखे न सुतलि कुसुम सयन नयने मुञ्चासि वारि । तहाँ की करव पुरुख भूपण जहाँ असहनि नारि । राही हठे न तोलिय नेह । काह्न सरीर दिने दिने दूवर तोराहू जीव सन्देह ।। परक वचन हित न मानसि चुफसि न सुरत तन्त । मने तो जो मीन करिअ चोरि आनए कन्त ॥६॥ किछु किछु पिअ आसा दिहह अति न करघ कोप । धके जतने वचन बोलव सङ्गम करच गोप ॥८॥ नव अनुरागे कि होएवा रह दिन दुइ चारि । प्रथम प्रेम ल धरि राखेए सेहे कलामति नारि ॥१०॥