पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२४६

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विद्यापति ।। ३३३ panorama सखी । ४५६ । कृपक पानि अधिक होगं काढि । नागर गुने नागरि रति बाढि ॥२॥ कोकिल कानन आनिअ सार । बरसा दादुर करए बिहार ॥४॥ अहनिसि साजन परिहर रोस । तन्ने नहि जानसि तेरे दोस ॥६॥ छवओ बारह मासक मेलि । नागर चाहए रङ्गहि केलि ॥८॥ ते परि तकर करो परिनाम । विरस बोल जनु होए विराम ॥३०॥ मोरे बोले दूर कर रोस । हृदय फुजी कर हरि परितोस ॥१२॥


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सखी । • ४५७ जो डिठिका ओल एहि मति तोरि } पुन हेरसि किए परि गोरि ॥ अइसना सुमुखि करिअ कके रोस । मञ कि बोलिवो सखि तीर दात " एहन अवथ रे इ वेवहार । पर पीड़ाए जीवन र्थिक ६ भल कए पुछलए घुरि सँसार । तर सूते गढ़ि काट कुन गुन जो रह गुननिधि सञो सङ्ग । विद्यापति कह ३ बड़ रङ्ग ॥ राधा ।। ४५८ ।। कि कहव अगे सखि मौर'अगैयाने । सगरिओ रयनि गमा जखने मोर मन परसन भेला । दारुन अरुन तखने जा रिओ रयनि गमाल माने